By Dr. Vijay a senior faculty of Delhi , Mukherjee Nagar (8447410108)
जन्म: 23 जनवरी 1897,
दुर्घटना: 18 अगस्त 1945)
सुभाष चन्द्र बोस के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
- 20 जुलाई 1921 को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई
- 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया
- 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए ICS पास कर ली
- सुभाष ने कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये
- अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ
- जो नेता जी के नाम से भी जाने जाते हैं, India के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। 2nd World War के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने Japan के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज (INA ) का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया।
- कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब नेता जी ने जापान और जर्मनी से मदद लेने की कोशिश की थी तो ब्रिटिश सरकार ने अपने गुप्तचरों को 1941 में उन्हें ख़त्म करने का आदेश दिया था।
- नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया।
- 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया।
- 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
- 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक /युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनायें माँगीं।
- नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका जन्म दिन धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से सम्बंधित दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किये?
- 16 जनवरी 2014 (गुरुवार) को कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया।
सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर एक नजर
जन्म और पारेवारिक जीवन
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर
में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था।
जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद
में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में
लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे।
अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती
देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक
कुलीन कायस्थ परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर
14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान
और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद
चन्द्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष
उन्हें मेजदा कहते थें। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
शिक्षा से लेकर आईसीएस तक का सफर[1920 in England]
पिता
की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक
ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय
यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम
निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये।
आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड
चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न
मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान
की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल
गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो
बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920
में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।कटक के
प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में
उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल
बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र
पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर
लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद
द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में
बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के
बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व सम्हाला जिसके कारण उन्हें
प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर
प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने
परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य
घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो
ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने
के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय
में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट
की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और
1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता
विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।
इसके
बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी
चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के
आदर्शों ने कब्जा कर रक्खा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी
कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस
से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा।
किन्तु अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता, परिवार के लोग या
अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून
1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ
स्वदेश वापस लौट आये।
स्वतन्त्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य[1921]
कोलकाता
के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर
सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को
खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह
के अनुसार भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी से
मिले। मुम्बई में गांधी जी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई 1921
को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गाँधी जी ने उन्हें कोलकाता
जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर
दासबाबू से मिले।
उन
दिनों गाँधी जी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था।
दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस
आन्दोलन में सहभागी हो गये। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के
अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़
सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने
लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को
महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में
कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला।
कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये
गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को
महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
बहुत
जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के
साथ सुभाष ने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की।
1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये।
कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब
देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय
आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य
थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक
अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में
सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी।
गाँधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में
उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन
सुभाषबाबू और जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर
नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस
देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने
यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु
अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का
वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय
किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा।
26
जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का
नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल
भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गाँधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता
किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत
सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह
की फाँसी माफ कराने के लिये गाँधी जी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के
साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया
समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी
नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों
को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गाँधी और कांग्रेस
के तरिकों से बहुत नाराज हो गये।
कारावास
1925
में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस
टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को
मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद
सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम
संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त
क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें
उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार
किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के
लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।अपने सार्वजनिक
जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई
1921 में छह महीने का कारावास हुआ।
5
नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी
मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में
रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु
अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने
उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें।
लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते
हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी
कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न
मर जायें। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की
कारागृह में मृत्यू हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके
बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।
1930
में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना
गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर
से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल
में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार
इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।
यूरोप प्रवास (1933 to 1936 )
बाद
में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ
सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस
विश्लेषण में उन दोनों ने गान्धी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद
विठ्ठल भाई पटेल जब बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी बहुत सेवा की। मगर
विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे, उनका निधन हो गया।सन् 1933 से लेकर 1936 तक
सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना
कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनीसे मिले, जिन्होंने
उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन
दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों
सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू
का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को
सान्त्वना दी।
विठ्ठल
भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर
उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को
स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा
चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी
सम्पत्ति गान्धी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।
1934
में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही
वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे
पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये।
कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन
जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।
ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह[1942]
सन्
1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय
उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की
आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल ( Emilie Schenkl) नाम की एक
ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु
चिकित्सक थे। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक
प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन्
1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा
लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार
तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस
रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब
सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। अनिता अभी जीवित है। उसका नाम
अनिता बोस फाफ ( Anita Bose Pfaff) है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने
अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती है।
हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्ष पद (1937)
इस
अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय
राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने
अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू
इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक
सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी
की।1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस
अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना।
यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र
बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया।
1937
में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष की अध्यक्षता में कांग्रेस
ने चीनी जनता की सहायता के लिये डॉ॰ द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व में
चिकित्सकीय दल भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाष ने भारत
के स्वतन्त्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया तब कई लोग उन्हे जापान की
कठपुतली और फासिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाष न
तो जापान की कठपुतली थे और न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा[1939]
1938
में गान्धीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर
उन्हें सुभाष की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय
विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का
लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने
अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु
गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।
1939
में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई
ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न
झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस
अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे।
गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना।
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को खत लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने
की विनती की। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष
को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस
मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद
कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।
सब
समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब
वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580
मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद
सुभाषबाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म
नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने
साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें
कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12
सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और अकेले
शरदबाबू सुभाष के साथ रहे।
1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरा में
हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि
उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गान्धीजी स्वयं भी इस
अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग
नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन
गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि
सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने
कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना[1939]
3
मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी
पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया
गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। द्वितीय
विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम
को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की।
3
सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने
की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे
अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के
प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में
काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प
भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने
दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।
अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो
भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ
मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले
गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश
दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह
वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।
इसके
परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य
नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में
निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के
लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार
ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष
युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द
करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।
नजरबन्दी से पलायन
काबुल
में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के
घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें
नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की
कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन
दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन
व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी
की राजधानी बर्लिन पहुँचे।नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना
बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद
ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने
उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन
से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड
ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात,
किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ
सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में
भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे।
पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।
नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात
बर्लिन
में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले।
उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की
स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार
के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये।
आखिर
29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले।
लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होने सुभाष को
सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई
साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में
उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर
से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन
काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अन्त
में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने
वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी
आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर
निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के
किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक
पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की
पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी
पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।
पूर्व एशिया में अभियान
जापान के
प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर
उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की
संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।पूर्वी एशिया पहुँचकर सुभाष ने सर्वप्रथम
वयोवृद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का
नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से
स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।
आज़ाद
हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय
युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी
की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर
में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की
स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री
बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के
प्रधान सेनापति भी बन गये।
पूर्वी
एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद
हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने
अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी
दूँगा।"
द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर
आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने " दिल्ली चलो" का
नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत
लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने
इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों
फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों
का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।
जब
आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की
व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ
सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का
एक आदर्श प्रस्तुत किया।
6
जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को
सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और
आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के
बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता कहा
तभी गांधीजी ने भी उन्हे नेताजी कहा।
दुर्घटना और मृत्यु की खबर
23
अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े
बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू (जापानी भाषा: Taihoku
Teikoku Daigaku) हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे
गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले
जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका
अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी
अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी
गयीं।भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी
की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे
हुई थी।द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता
ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18
अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के
दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।
स्वतन्त्रता
के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में
दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान
दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने
की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं
की।
1999
में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में
ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर
कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने
भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की
मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार
ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
देश
के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले
लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य
में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन
इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के
होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के
योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी।
सुनवाई के लिये विशेष पीठ का गठन
कलकत्ता
हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों
को सार्वजनिक करने की माँग पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश
दे दिया है। यह याचिका सरकारी संगठन इंडियाज स्माइल द्वारा दायर की
गयी है। इस याचिका में भारत संघ, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, रॉ, खुफिया
विभाग, प्रधानमंत्री के निजी सचिव, रक्षा सचिव, गृह विभाग और पश्चिम बंगाल
सरकार सहित कई अन्य लोगों को प्रतिवादी बनाया गया है।
भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।
आजाद
हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का
नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी
परिणाम हुआ। सन् 1946 के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के
बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में
शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई
दूसरा विकल्प नहीं बचा।
आजाद
हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता
जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के
लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
जहाँ
स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो
स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और
कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने
स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया
था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक
क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
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